Monday 21 April 2014

काली मिट्टी के मेरे भगवान

मैं और दीदी बचपन में भगवान बनाते थे.

मटखान से काली मिट्टी मैं लाता था. घरौंदे बनाने के लिए, दीदी के साथ मिल के. जो मिट्टी बचती थी उस से हम भगवान बनाते थे. दीदी का अपना भगवान होता था, मेरा अपना.

वो पहले अपना घरौंदा बनाती थी. उसके बाद भगवान. मैं शुरू से ही भगवान बनाने के चक्कर में लगा रहता.

दीदी दसियों बार घरौंदे तोडती, दो-चार बार मैं भी तोड़ देता. कभी दायीं तरफ खिड़की खोलती कभी बाईं तरफ. कभी छत पे रेलिंग बनाती कभी तोड़ देती.

उसका लक्ष्य होता था, उसका घरौंदा सबसे अच्छा होना चाहिए.
                    मैं और दीदी बचपन में भगवान बनाते थे. गूगल इमेज 

मैं भी अपने भगवान को दसियों बार तोड़ता. कभी मुकुट पहना देता, कभी मयूर पंख लगा देता. तोड़ते-मरोड़ते, मै अपना भगवान खुद बना लेता, एकदम पर्सनलाईजड, एकदम कस्टमाइज्ड.

बहुत छोटा होता था मेरा भगवान. बस इत्ता कि मेरे ‘इंस्ट्रूमेंट बाक्स’ में आ जाये. मै उनसे खूब बातें भी करता था.

जब माँ डांट देती थी, मैं छत के एक कोने में बैठ के उनकी शिकायत करता, अपने भगवान से.

मेरा भगवान मेरी शिकायत सुनता भी था. इसका एहसास तब होता जब में आंसू सुखा लेने के बाद नीचे जाता. माँ ऐसे प्यार करती, मैं भूल जाता था अभी क्या हुआ था.

किसी-किसी दिन ‘छोटी’ क्लास में नही दिखती थी. मैं भगवान से बोलता (विनती नही करता था मैं), "उसको पढ़ने क्यू नही बुलाया?"

अगले दिन छोटी आती. मैं अपने काली मिट्टी के भगवान को धन्यवाद देता. क्यूंकि उसने ही तो उसे पढ़ने भेजा था, मुझे ऐसा लगता था.

अपने छोटे से भगवान को मैंने कितना काम दे रखा था.

माँ की डाट से पापा के चाट तक, मास्टर साहब के झाड, दादी माँ की तबियत तक. दीदी की बोसगिरी से, छोटी (जिसमे मुझे रब दीखता था) के नखरे तक, एक्जाम के रिजल्ट से क्रिकेट में जीत तक; सब का जिम्मा उसी छोटे से भगवन पे था.

और वो छोटा सा भगवान कितना बड़ा था, मेरी हर बात सुनता था.

मेरे सपने बड़े-बड़े होते थे, एकदम इरेश्नल से. क्यूंकि मुझे वास्तव बनना क्या था इस बारे में कोई ठोस आइडिया नही था मेरे पास. हाँ क्या नहीं बनना है ये आइडिया जरुर था.

लाल बत्ती वाली गाड़ी देखे के मेरे दिल में कभी कोई हलचल नही हुई आज तक.

माँ, बाबूजी, दीदी और छोटी के माँ-बाबूजी, इन सबको बचपन से ही लाल बत्ती का शौक था. वे लोग खुद नही कर सके. चाहते थे मैं ही घर पे ले आऊँ एक लाल बत्ती वाली गाडी.

वो अभी भी चाहते हैं, क्यूँकि अभी उम्र है मेरी. लेकिन मुझे यही नही बनना था- लाल बत्ती वाला.

और मेरे भगवान को ये बात भी पता थी. और जब घर वाले लाल बत्ती गाड़ी के सपने देखते थे मैं पीली साड़ी के.

एक मैम थी. अंगरेजी पढाती थी. हर गुरुवार पीली साड़ी पहन के आती थीं.

और सप्ताह में बस एक वही दिन होता था जब मुझे लगता था मेरी लाइफ में एक ‘एम’ है तो वो है बस इनसे शादी करना. अपने भगवान को मैंने ये भी बता दिया था.

मै छठी क्लास में था जब मैम की शादी हुई थी. छुप-छुप के रोता था मैं. कभी बगीचे में, कभी गाय की नाद के पास, कभी स्कुल के बाथरूम में. भगवान को हर समय अपने पास ही रखता था.

ऐसा पहली बार हुआ था जब मेरे भगवान ने मेरी बात नही सुनी थी.

कुछ दिन रोने के बाद गुस्से में मैंने भगवान जी को बैग से निकाल के दीदी के घरौंदे में रख दिया.

एक दिन तो क्लास में बैठे-बैठे ही रोने लगा. मैथ्स वाले सर क्लास ले रहे थे. पूछते रहे क्यूँ रो रहे हो? मैं बता न सका.

अगले दिन क्लास के बाद छोटी पूछी, “कल क्यूँ रो रहे थे?”

“क्यूँ न रोयूँ? अब कौन करेगा मेरे से शादी. मैम की तो शादी हो गयी. मैं क्या करूँगा अब?”

“अरे बुद्धू मैं करूंगी ने तुमसे शादी. परेशान काहे होते हो?”

“मजाक मत करो मेरे से. मैम पीली साड़ी में कितनी अच्छी लगती थीं? तुम तो फ्रॉक पहनती हो. और उनके बाल कितने बड़े बड़े थे. तुम्हारे तो इतने छोटे हैं. मेरे जैसे और वो तो शादी करने लायक भी थीं. तुम अभी बहुत छोटी हों. मेरी ही उमर की.”

“अरे भाई साहब. मैं बड़ी हों जाउंगी. बाल भी बढ़ा लूंगी. पापा से बोलूंगी पीली साड़ी खरीद देंगे. और क्या चाहिए? मैम अंगरेजी पढाती थी. वो तो मैं आज से शुरु कर सकती हूँ. अब चलो क्लास. घंटी पाँच मिनट पहले ही लग गयी है.”

छोटी की बात सुन के ऐसा लगा मेरा काली मिट्टी वाला भगवान अभी भी मेरी सुनता है.

घर गया दीदी से बोला मुझे नया भगवान बनाना है. उसने अपना वाला भगवान जी मुझे दे दिया.

बचपन में कभी बड़े-बड़े मंदिर में जाने की न तो जरुरत महसूस होती थी, न ही इच्छा.

बड़े होने लगे. मिट्टी के घर की जगह पक्के घर बन गए. पीली साड़ी का फैशिनेशन अब फैशिनेशन न रहा. छोटी पीली टी-शर्ट पहनने लगी थे. दीदी शादी कर के शाशुराल चली गयी.

जैसे जैसे बड़ा होता गया मेरे डिमांड बड़े होने लगे, सपने छोटे और भगवान, बहुत-बहुत बड़े.

भगवान जी मेरे बैग से निकलकर होस्टल की दीवार (पोस्टर के रूप में) पे और कमरे की रेक पे आ गए.

मंगलवार, शनिवार को अंडा, मांस खाना छोड़ दिया. गुरुवार को सरसों तेल, मांसाहारी खाना छोड़ दिया.

सिगरेट नही पिता फिर भी माचिश मेरे टेबल पे हमेशा रखी होती. सुबह शाम कमरे से अगरबत्ती की खुशबू आती.

इच्छा न होते हुए भी उपवास भी रखने लगा. हर छोटी से चीज के लिए मंदिर जाने लगा. बहुत सी चीजें उससे छुपाने लगा. मिन्नतें मांगने लगा. ऐसा लगने लगा भगवान पे मेरा हक अब नही रहा.

इतना करते हुए भी मैं अब भगवान से नाराज भी नही हो पता था.

धीरे धीरे एहसास होने लगा पहले भगवान से प्यार करता था. अब डरने लगा हूँ. पता नहीं ऐसा कैसे हो गया?

मैं इन चीजों से परेशां रहने लगा. एक दिन दीदी आयी थी हमसे मिलने.

मैंने उससे कहा, “चलो मंदिर चलते हैं.”

उसने बोला, “नहीं.”
मैंने पूछा, “क्यूँ?”

उसने बोला, ”ये जो इतने बड़े-बड़े मंदिरों में इतने बड़े-बड़े भगवान हैं रहते हैं न मैं नही जाना चाहती उनके पास. मुझे डर लगता है उनसे. डरती हूँ कि अगर मैं अंडे खा के उनके पास गयी तो नाराज हों जायेंगे. मीट-मांस खा के गयी तो नाराज हों जायेंगे, गुरुवार को साबुन या सरसों तेल लगा लिया तो नाराज हों जायेंगे.”

और वो मेरे साथ जो मर्जी आये कर लें मैं उनसे नाराज नही हों सकती.”

इन बड़े-बड़े भगवानों से तो अच्छा तो हमारे काली मिट्टी वाले भगवान ही थे. जिससे मैं कभी नहीं डरी. उससे शिकायत की. उससे माँगा और नही दिया तो मैं गुस्सा भी हुई. वो सब सहता था."

उसे दंभ भी नही था कि वो दुनिया बनाता है. क्यूंकि उसे पता था हम दोनों उसे बनाते थे. साथ-साथ मिल के दीपावली में. पत्थरों से, धातुओं से, संगमरमर से, सोने से, चांदी से बने बड़े-बड़े भगवान नहीं चाहिए.


मुझे मेरी काली मिट्टी से बना छोटा सा भगवान चाहिए.”

मैं चुप रहा. मेरी आंखें उस तरफ गयी जहाँ बैठ के हम घरौंदा बनाते थे.
आज वहाँ पे एक देवताघर बना दिया गया था, सीमेंटेड. और उसमे कुलदेवता जी को बैठा दिया गया था.

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